टेढ़ी खीर
एक गांव में नैनसुख नाम का आदमीं था। वह जन्म से ही अंधा था। वह बहुत सीधा-सादा था। दुनियादारी के बारे में उसे जानकारी नहीं थी। गांव के लोग उसके बारे में कहते थे कि वह तो गऊ आदमी है। गांव के लोगों से उसे बहुत अपनापन मिलता था।
उसके मां-बाप बचपन में ही गुजर गए थे। चाचा-ताऊ तो थे लेकिन कोई सगा भाई-बहन नहीं था। घर में अकेला रह गया था। फिर भी मां के बाद ताई और चाची के हाथ की रोटियां खाने को मिलने लगी थीं। कई साल तक ताई-चाची के यहां जाकर रोटियां खाता रहा। फिर बच्चों के हाथों उसके पास रोटियां भेजते रहे।
कुछ समय बाद पड़ोस की औरतें भी उसे रोटियां दे जातीं। ऐसा सिलसिला बना कि कभी घर के दे जाते कभी पड़ोस के। कभी-कभी ऐसा भी हो जाता कि जब किसी के यहां रोटियां न आतीं, तो उस दिन वह सुबह 10-11 बजे के बाद घर से निकल लेता। रास्ते मैं जाते समय जब कोई उसे टोकता, तो वह रुक जाता और बातें होने लगतीं। बातों बातों में कोई खाने के लिए पूछ लेता और खाना खिला देता। अब इसी तरह की दिनचर्या बनगई।
कभी-कभी वह शाम को चौपाल पर आकर बैठ जाता। रोज-रोज वहां किस्से-कहानियां होते। कभी इधर-उधर की बातें होने लगतीं। कभी गांव की किसी महिला के बारे में चर्चा चल पड़ती । रात होते ही लोग अपने-अपने घर चले जाते। वह भी अपने घर चला आता था।
गांव का मुखिया जब कभी उधर से होकर निकलता था, तो चौपाल होकर आता था। थोड़े समय बैठकर चला जाता था। मुखिया गांव का धनी और सज्जन आदमी था। एक दिन जब मुखिया चौपाल पहुंचा, तब वहां नैनसुख भी बैठा हुआ था । लोगों ने उस दिन मुखिया के सामने नैनसुख की बड़ाई कर दी। लोगों की बाते सुनकर मुखिया को उस पर दया आ गई। मुखिया ने नैनसुख को भी निमंत्रण देते हुए कहा, नैनसुख भाई, कल शाम का खाना मेरे यहां खाना। कल खीर बनाने का दिन है। भूलना नहीं। "मुखिया ने इतना कहा और चला गया। नैनसुख,"अच्छा मुखियां जी। अच्छा जी। कहता रह गया।
मुखिया के जाने के बाद और लोग भी चले गए। चौपाल पर नैनसुख तथा दो आदमी और रह गए थे। नैनसुख ने बड़े संकोच और उत्सुकता से वहां बैठे लोगों से पूछा, "रघू काका, खीर कैसी होती है?"
नैनसुख की बात सुनकर, रघू काका और पास बैठा आदमी हंस दिए। नैनसूख ने कहा, " काका, इसमें हंसने की क्या बात है? मैंने कभी खीर खाई ही नहीं है। मैंने इसीलिए पूछा है काका।"
नैनसुख की बात सुनकर दोनों सहज हुए। काका बोले, "नैनसुख भाई खीर सफेद होती है।'"
नैनसुख फिर असमंजस में पड़ गया । वह तो जन्म से अंधा था। इसलिए उसे रंगों का ज्ञान नहीं था। फिर भी समझने के लिए उसने दोबारा पूछा, "रघू काका, सफेद कैसा होता है? मैं तो यह भी नहीं जानता। "रघू काका बोले, "सफेद बगुला जैसा होता है। यानी कि खीर बगुला जैसी होती है।"
नैनसुख फिर चक्कर में पड़ गया। बोला, "काका, अच्छा यह बताओ,बगुला कैसा होता है?
रघु काका चक्कर में पड़ गए। सोचने लगे, मैंने कह तो दिया बगुला जैसा । लेकिन इसने तो बगुला क्या, कुछ भी नहीं देखा। अब इसे कैसे समझाऊ कि बगुला कैसा होता है। तुरंत काका के दिमाग में कुछ आया और
नैनसुख की तरफ घूमते हुए बोले, " मेरे पास आ । मैं बताता हूँ बगुला कैसा होता है?"
वह काका के पास अकर बैठ गया, तो रघू काका ने अपनी बांह और हाथ के जरिए बगुला की गरदन बना ली और नैनसुख का हाथ पकड़कर कहा, "देख, बगुला ऐसा होता है।" उसका हाथ, अपने झुके हुए पंजे से फेरते हुए नीचे को कोहनी, फिर कोहनीं से कंधे तक ले गया। फिर कहा, ऐसा बगुला होता है, समझ गया?
इतना सुनते ही नैनसुख का गला सूख गया और असमंजस में पड़ा सोचता रहा। काका ने उसे गुममुम होते देख पूछा, "अब क्या सोच रहा है नैनसुख?"
नैनसुख सांस खींचते हुए धीम धीमे वाला, "रघु काका, खीर अगर ऐसी टेढ़ी होती है, तो मुंह में जाएगी कैसे ?"
इतना सुनकर रघु काका और बैठा हुआ दूसरा आदमी एक बार फिर जोर का ठहाका लगाकर हंसे। सामने ही चारपाई पर लेटे लेटे रामसिंह बाबा यह सब कुछ देख सुन रहे थे। वे भी मुस्करा उठ। वे अपने को रोक नहीं सके और बोल पड़े- "हाँ नैनसुख भैया, "टेढ़ी खीर" है। कल तो मुखिया के यहां तुझे खानी ही पड़ेगी।"
