घर की मुर्गी दाल बराबर
फकीरा बहत गरीब था। मेहनत-मजदूरी करके अपने परिवार पोषण करता था। घर में
अधिकतर दाल और रोटियां ही बनती थीं । एकादि बार प्याज की चटनी भी चल जाती थी। फिर
शाम को दाल । कभी-कभी हरी सब्जी बनती थी। मीट तो बकरीद के समय ही बन पाता था।
कभीखरीदकर लाते थे। कभी किसी के यहां से आ जाता था।एक बार वह अपनी दूर की
रिश्तेदारी में गया। उसके साथ तीन
आदमी और थे। उनका बहुत बड़ा मकान था। उसमें कई
कमरे थे। आागे खुली जगह थी। लंबा घेर था। एक कोने में मुर्गियों का दड़वा था। उनको
ठहरने के लिए एक बड़ा कमरा दिया गया था।
वहां इन लोगों का अच्छा सेवा-सत्कार किया गया । दिन में खेत-खलिहान घूमते, बाजार घूमते शाम को भोजन करते, देर रात तक गपशप चलती, फिर सो जाते।
आज तीसरा दिन था। रोज अच्छा भोजन परोसा जा रहा था। आज भी मुर्गे की तरकारी बनी थी । वे खाना खाते समय आपस में बातें कर रहे थे कि ये बहुत धनी आदमी हैं । खाने में रोज-रोज मुर्गे की तरकारी परोसना गरीब आदमी के बस की बात नहीं है। उनमें से एक बोला, "मेरे यहां तो ईद जैसे खास दिन ही तरकारी बनती है, वह भी बकरे की। दुसरा बोला, "मेरा भी यही हाल है । बस, ईद-बकरीद के अलावा दो- चार दिन और बन जाती है।' तीसरा बोला, "रोज-रोज तो अच्छे परिवार में भी संभव नहीं है। यहां तो भैया, 'घर की मुर्गी दाल बराबर'। यदि ये बाजार से खरीदकर बनाएं, तो थोड़ा इनको भी सोचना पड़ेगा।"
