सांच को आंच कहां
हिरण्यकशिपु नाम का एक प्रतापी राजा था। वह ज्ञानी एवं भगवान का भक्त था। उसकी ख्याति दूर दूर तक फैली थी। उसके प्रह्लाद नाम का एक पुत्र था। प्रह्लाद बाल्यावस्था में ही समझदार और शांत प्रवृत्ति का था।
वह बाल्यावस्था में कभी-कभी महल के बाहर निकल जाता था। महल के पास ही एक कुम्हारिन का घर था। वह वहीं रहती थी और मिट्टी के बर्तन बनाती थी। प्रह्लाद जब भी उधर जाता था, तो कुम्हारिन के पास कुछ क्षण के लिए अवश्य रुकता था। कभी वह कुम्हारिन को मिट्टी कूटते देखता था, तो कभी चाक पर बर्तन बनाते देखता था। गागर को कैसे ठोक ठोककर बनाया जाता है, यह देखना उसे बहुत अच्छा लगता था। कभी आवां से बर्तनों को निकालते और रखते देखता था।
एक दिन प्रात:काल का समय था। उस समय बालक प्रह्लाद कुम्हारिन की तरफ घूमने गया। कुम्हारिन का घर आते ही वह रुक गया। कुम्हारिन आवां के पास बैठी रो रही थी। कुम्हारिन को रोते देखकर प्रह्लाद विचलित हो गया। वह उसके रोने का कारण जानने के लिए आतुर हो उठा। उसके पास जाकर उसने पूछा, "आप क्यों रो रही हैं ?"
कुम्हारिन बोली, " बेटा, एक कच्ची गागर में बिल्ली के दो बच्चे थे। ध्यान नहीं रहा। गलती से वह गागर भी पकने के लिए आवां में लगा दी थी। जब अवां में आग फैल गई और गागरें पककर ठंडी होने लगीं, तब मुझे याद आया कि उस गागर में तो बच्चे थे। उसी समय से मैं भगवान से प्रार्थना कर रही हूं कि वे बच्चे जीवित निकलें। नहीं मुझसे बहुत बड़ा पाप हो जाएगा।
प्रह्लाद ने पूछा, "बच्चों को कब निकालोगी?"
कुम्हारिन ने कहा, 'बेटा, आवां की गागरें अभी गर्म हैं। थोड़ा ठंडी होते ही निकालूंगी।
प्रह्लाद ने कहा, "कितनी देर और लगेगी? गागरों को जल्दी निकाल लो।"
कुम्हारिन ने गागरें छूकर देखीं और कहा, "थोड़ी देर में गागरें निकालूंगी।
इतना कहकर कुम्हारिन धीमे- धीमे आवां की मिट्टी हटाने लगी। उसने गागरें छूकर देखीं, तो इतनी गर्म थीं कि वह उठा सकती थी। प्रहलाद वहीं खड़ा देखता रहा और उसने मन-ही-मन तय कर लिया कि बिल्ली के बच्चों के निकलने के बाद ही जाऊंगा। कुम्हारिन आवां से गागरें एक -एक करके निकालने लगी। गागरें उठाते समय भी उसके आंसू बह रहे थे। उसने देखा, आवा में एक जगह कुछ गागरें थोड़ी-थोड़ी कच्ची थीं। उसके बीच में एक गागर पूरी कच्ची थी। जैसे ही उसने कच्ची गागर को बाहर निकाला, बिल्ली के बच्चे म्याऊं म्याऊं करते हुए निकले।
कुम्हारिन के चेहरे पर मुस्कान छा गई। उसने अपने आंसू पोंछे और आकाश की ओर हाथ जोड़ते हुए बोली, "भगवन, तुमने मुझे बचा लिया। यदि बच्चे जल जाते, तो मैं पाप की भागिन बन जाती। आपने मुझ गरीब दुखियारी की लाज रख ली। भगवान सबका भला करता है। सबकी रक्षा करता है। किसी का बुरा नहीं करता।" इस घटना का प्रभाव प्रहलाद पर बहुत गहरा पड़ा। कुम्हारिन की प्रार्थना देखकर उसे भी भगवान में विश्वास हो आया और दिनोदिन प्रभु के ध्यान में मग्न रहने लगा।
हिरण्यकशिपु को ब्रह्मा से यह वरदान प्राप्त था कि उसे न कोई पुरुष जाति और न स्त्री जाति का, न सर्प, सिंह आदि कोई भी जीव न दिन में मार सकता था न रात में, न घर में, न घर से बाहर, न धरती पर न आकाश पर।
इस तरह हिरण्यकशिपु स्वयं को भगवान कहने लगा और जनता से बलपूर्वक स्वयं को भगवान कहलवाने लगा। भय के कारण घर के लोग भी उसे भगवान के रूप में मानने लगे थे । लेकिन प्रह्लाद अपने पिता को अच्छी तरह जानता था। उसका पिता स्वयं को भगवान कहलवाने के लिए लोगों के साथ क्रूरता और अत्याचार का व्यवहार करने लगा था। ऐसा व्यवहार तो साधारण आदमी भी नहीं करता है। उसे तो उस कुम्हारिन के शब्द याद थे जो कहती थी कि भगवान किसी का बुरा नहीं करता। वह तो हमेशा लोगों का भला करता है। सबसे प्यार करता है । किसी को मारता, धमकाता नहीं । तब मेरा पिता भगवान कैसे हो सकता है। उसे भगवान के प्रति लगन तो कुम्हारिन के मिलने से ही लग गई थी। हिरण्यकशिपु को पता चलने पर उसने प्रहलाद को पीटा और धमकाया लेकिन वह अपने पिता को भगवान मानने को तैयार नहीं हुआ।
हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को स्वयं नहीं मारना चाहता था। उससे उसका बदनामी हो सकती थी। इसलिए उसे मारने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने लगा। और प्रह्लाद बाल बाल बचता रहा। प्रह्लाद को विश्वास था कि भगवान मेरी रक्षा करेगा। जब हिरण्यकशिपु के सभी प्रयत्न असफल तो उसने एक और चाल चली। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के पास एक ऐसी ओढ़नी थी जिसे औढ़कर आग में बैठ जाए तो वह जल नहीं सकती थी।
एक बार हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से कहा कि देखते हैं तेरा भगवान सच्चा है या नहीं। उसने प्रह्लाद को होलिका के साथ अग्नि में बैठना स्वीकार करा लिया । लकड़ियों का विशाल मंच बनाया गया। उस पर होलिका उस ओढनी को ओढ़कर बैठ गई और प्रहलाद को उसकी गोद में बैठा दिया गया। इसके बाद लकड़ि्यों में आग लगवा दी गई । कुछ देर में ही आग की लपटें ऊंची- ऊंची उठने लगीं। प्रह्लाद ने स्वयं को कुम्हारिन की तरह भगवान के ध्यान में लीन कर लिया।
उठती लपटों को देखकर देखने वालों के दिलों में प्रहलाद के प्रति दया के भाव उमड़ पड़े । सब सोचने लगे कि अबकी बार प्रहलाद नहीं बचेगा। इसी बीच होलिका के पीछे से हवा के झोंके के साथ बड़ी लपटें उठीं और होलिका की ओढनी सिर से उतरकर प्रहलाद के शरीर पर आ गिरी। ऐसा होते ही होलिका जलने लगी और वह हाय- हाय करके रोती रही, चिल्लाती रही। अंत में होलिका जलकर राख हो गई और प्रह्लाद उसी तरह पालथी मारे आंखें बंद किए बैठा रहा।
प्रह्लाद को जीवित देखकर जनता की आंखों में खुशी के आंसू छलछला आए। भीड़ में से किसी ने आवाज लगाई- "सांच को आंच कहां।"
