बनिया मित्र न वेश्या सती
एक बनिया था। उसके पड़ोस में एक गरीब आदमी रहता था। दोनों पक्के मित्र थे। पडोसी का मकान बहुत अच्छा बना हुआ था। यह उसके बुजुर्गों ने बनवाया था। उसकी आंखों में यह मकान खटकता रहता था। बनिया की नीयत में खोट आ गई। वह यही सोचता था कि किसी तरह यह मकान मेरे पास आ जाए। इसके लिए वह तरह-तरह की तरकीबें सोचता रहता।
बनिए का पड़ोसी बहुत सीधा था। वह अपने काम से काम रखता था। वह बनिए के अलावा किसी की संगत नहीं करता था और न कोई बुराई थी उसमें । उसके और बनिए के बुजुर्गों की भी आपस में खुब पटती थी। पहले बनिए की तरह ही उसके बुजुर्गों की भी हालत अच्छी थी । लेकिन अब सब कुछ बदल चुका था। बनिया इसी चक्कर में रहता कि किसी तरह पड़ोसी मित्र से और अधिक मेल-जोल बढ़ाया जाए। बाजार में बनिए की कपड़े की दुकान थी। पहले जब उसका पड़ोसी उस रास्ते से निकलता था, तो बनिए और पड़ोसी की बात हो जाया करती थी। अब बनिया अपने पड़ोसी को गद्दी पर बैठाकर जलपान कराया करता था। कुछ दिनों में दोनों खुब घुल-मिल गए थे।
कुछ दिन बाद पड़ोसी के लड़के का विवाह आया। उसके जुगाड के लिए वह चारों ओर फिरने लगा। उसके पास पैसे नहीं थे, इसलिए उसके चेहरे पर चिंताएं आती चली गई । बनिए को मालूम था कि पड़ोसी के लड़के का विवाह है। एक दिन बनिया दुकान पर बैठा था। उसने देखा कि सामने से पड़ोसी आ रहा है। जैसे ही वह पास आया, उसे गद़दी पर बैठाते हाए बोला, मनसुखलाल, क्या बात है? आज बड़ी चिंता में दिखाई दे रहे हो। कोई परेशानी हो, तो बताओ। आखिरकार मैं तुम्हारा मित्र हूं।" मनसुखलाल ने कुछ नहीं कहा और दूसरी बातें ही करता रहा।
मनसूखलाल को इतना मान मिल रहा था कि बनिए के प्रभाव में रहने लगा। एक दिन बनिए ने फिर मनसुखलाल को टोका, "भाई, लड़के के विवाह के थोड़े दिन ही रह गए हैं। क्या जुगाड़ किया है ?" मनसुखलाल बोला, 'क्या बताऊं। कहीं से कुछ बात नहीं बन पाई है ।'" बनिया बोला, भई, अब सोचने का समय तो नहीं है। जितना पैसा चाहिए, मेरे से ले जाओ। शान से विवाह करो लड़के का।" मनसुखलाल उसकी बातों में आ गया।
मनसुखलाल ने लड़के का धूम-धाम से विवाह कर लिया। पैसे उधार देते समय बनिए ने कागज पर दस्तखत करा लिए थे। दस्तखत कराते समय बनिए ने कहा, " भाई, मनसुख, यह तो ऐसे ही करा लिए हैं। पैसे चाहे जब देते रहना। इस कागज को बाद में फाड़ देंगे।" मनसुखलाल को बनिए में कोई बनावट या चालाकी नजर नहीं आई।
कई वर्ष बीत गए। बनिए ने पैसों का कभी तकाजा ही नहीं किया। जब भी पड़ोसी के कुछ होता, तो बनिया उसे उधार दे देता । हालांकि पैसे लेने के पहले मनसूखलाल कहता था, "पहले का लिया ही नहीं दे पाए हैं। यह सब बाद में कैसे दे पाऊंगा?" बनिया हर बार यही कहता, " भाई, तुम किसी बात की चिंता मत करो। तुम मेरे मित्र हो। शान से जो करना है करो।"इस तरह चाहे लड़की की शादी रही हो या और कोई खुशी, कोई त्यौहार रहा हो या हारी-बीमारी, हर बार बनिए ने कुछ-न-कुछ दिया ही था।
बनिए ने पैसों का तकाजा कभी नहीं किया था। मनसुखलाल भी भूल से गए थे कि किसी का कर्ज देना है, लेकिन जब लगभग दस वर्ष बीत गए, तो एक दिन बनिए ने मनसुखलाल से कहा, " भाई, एक दिन अपना हिसाब देख लो। कल आ जाओं।" हमेशा की तरह मनसूखलाल बनिए के पास पहुंच गया। बनिए ने हिसाब बताया, तो मनसुखलाल के पैरों से जमीन निकल गई। मुंह खुला-का खुला रह गया। यह इतना पैसा हो गया था कि किसी हालत में उतारा नहीं जा सकता था। घर बेचने पर भी इतना पैसा नहां मिलता। अखिर एक दिन बनिए ने पड़ोसी का मकान अपने नाम करा लिया।
मनसूखलाल ने सोंचा कि गलती मेरी थी। मकान गया तो गया, लेकिन मित्रता बनी रहे। इधर मकान लेते ही बनिए ने अपना व्यवहार बदल दिया। गददी पर बैठाना तो दूर, उससे बातें करना भी बंद कर दिया मनसुखलाल उस रास्ते से आता दिखाई देता, तो बनिया उससे नजर तक नहीं मिलाता । मनसुखलाल चुपचाप निकल जाता।
जाड़े का समय की था। कुछ लोग धूप में खड़े बतिया रहे थे। बात बनिए और मनसुखलाल की छिड़ गई। एक ने कहा, खड़े "दोनों पड़ोसी थे, दोस्त थे फिर भी बनिए ने उसका मकान हड़प लिया।
दूसरा बोला,"मनसुखलाल सीधा-सादा था, फंस गया लाला के चंगुल में।
उसने मकान लेने के लिए दोस्ती बनाई था, और उधार देता रहा। आखिर उसने मकान ले ही लिया। पहले आदमी ने फिर कहा,"बनिए पर कभी विश्वास नही करना चाहिए। यह बिना मतलब के किसी से दोस्ती नहीं करता। उसकी पैसों की भूख वेश्या जैसी होती है।
भैया, इसी प्रकार बनिए की नजर पैसों पर होती है। चाहे उसका मित्र हो या घर का । सबसे कमाता है।"
वहीं बातें कर रहे लोगो में से एक नए कहा, "हाँ भैया, ठीक कहते हो। संसार में "बनिया मित्र न वेश्या सती।"
