अंधे न्योतें, दो-दो आयं
एक कंजूस आदमी था। ईश्वर ने उसे खूब धन दिया था लेकिन एक धेला खर्च करने में भी वह सोचता था। जब वह कोई चीज खरीदता था, तो सौ बार उसकी कीमत लगाता । कम-से कम पैसा लगाता और फिर थोड़ा- थोड़ा करके बढ़ाता लेकिन दुकानदार समझ लेता कि यह कंजूस आदमी है। अधिक पैसे नहीं देने वाला, तो कम-से कम मुनाफा लेकर दुकानदार उसको सौदा दे देता। इस तरह वह कम से कम पैसों में वस्तु खरीदता। और जब खुद किसी चीज को बेचता तो कई गुना कीमत वताता । कम करता तो धीरे धीरे कम करता फिर भी इतने में बेचता कि वह बहुत अधिक लाभ में रहता साथ में एहसान जताता कि मैंने इतने पैसे कम कर दिए।
इस प्रकार किसी को भी वह कम से कम देता और अधिक से अधिक लेता। घर में संस्कार, तीज त्यौहार आदि में भी पंडितों को कम से कम दक्षिणा देता। कम-से कम लोगों को खाना खिलाता । जब कोई उसको दुकान पर संस्कार आदि के अवसर पर कोई सामान खरीदता, तो अधिक से- अधिक मुनाफा लेकर वस्तु बेचता। इस आदत से पूरा गांव ही नहीं बल्कि आस पास के गांव के लोग भी जानते थे।
एक बार उसने अपने यहां अनुष्ठान किया। उसने गांव का ब्राह्मण न बुलाकर पास के गांव का ब्राह्मण बुलाया। जब वह ब्राह्मण से बात कर रहा था, तो वह तुरंत भांप गया कि यह आदमी बहुत कंजूस है। इसलिए उसने उसी तरह दक्षिणा तथा अन्य बातों के बारे में बात की । पंडित ने सोच लिया कि जितना यह कंजूस बनता है, उतना अधिक खर्च करवाना है।
पंडित ने उस व्यक्ति को बताया कि कम-से कम पंद्रह ब्राह्मणों को भोजन तो कराना ही पडेगा। कंजूस व्यक्ति ने कहा, "उनकी कम-से कम खुराक कितनी बैठेगी?" ब्राह्मण ने बताया कि बस यों ही-मन के आठ। कंजूस का माथा ठनका, "मन के आठ- इसका क्या मतलब हुआ? पंडित बोला, "आप भी बहुत भोले हैं जिजमान । यानी एक मन आटा की रोटी को
आठ लोग खाएंगे।' इतना सुनते ही जिजमान के माथे पर पसीना आ गया। वह बोला, "पंडित जी, कम-से- कम खुराक वाले ब्राह्मण के बारे में बताओ।' पंडित फिर बोला, "भाई इतना नहीं तो बीस सेर के आठ रख लो ।" वह बोला कि इतना भी अधिक है। ब्राह्मण ने टटोलते हुए कहा, "भई पंद्रह सेर के आठ रख लो ।" इस पर भी कंजूस व्यक्ति को अधिक लगा। अंत में पंडित ने कहा, "तो एक तरीका है कि आप ब्राह्मणों को छोड़ो। एक पुण्य का काम बताते हैं। आप दस अंधों को भोजन दो। उनकी आत्मा आपको सबसे अधिक आशीर्वाद देंगी और आप जानते ही हैं कि अंधों की खराक साधारण आदमी के बराबर होती है। '
इस बात को उस व्यक्ति ने थोड़ा सोचा और राजी होते हुए बोला, "यह तो ठीक है लेकिन इतने अंधे मिलेंगे कहां?" पंडित जी ने कहा, "अंधों की व्यवस्था मुझ पर छोड़ दो। "
कंजूस व्यक्ति पंडित जी की इस बात पर तैयार हो गया। अनुष्ठान में कई गांव के लोग आए। पंडित ने उन्हीं लोगों में अंधों को लाकर बैठा दिया। अनुष्ठान पूरा होने पर चरणामृत-पंजीरी बांटा गया। अधिकतर लोग प्रसाद लेकर चले गए । खास-खास थोड़े लोग रह गए। जब भोजन बनकर तैयार हो गया, तो पंडित जी से कहा कि अंधों को भोजन के लिए बुला
लो। जब उनको बुलाया गया तो दस की जगह बीस लोग पहुंच गए । कंजूस व्यक्ति ने देखा कि ये तो बीस लोग हैं। उनमें अंधे केवल दस ही हैं लेकिन दस अंधे नहीं हैं । जो अंधे नहीं थे वे देखने में लग रहे थे कि इनकी खुराक बहुत होगी। उसने पंडित से कहा कि बात दस अंधों की हुई थी। ये तो बीस लोग हैं।
इस पर पंडित जी हंसते हुए बोले, "जिजमान, ये अंधे अलग-अलग गांव से आए हैं। ये देख सकते नहीं, इनको रास्ता मालूम नहीं तो यहां तक कैसे आते। इसीलिए अंधों के साथ एक एक आदमी आया है।
वहां घर, रिश्तेदार तथा आस-पास गांव के खास-खास लोग इकट्ठे थे। कुछ लोगों की इस बात पर हंसी निकल गई। उन्हीं में से किसी एक व्यक्ति ने कहा-
"अंधे न्योतें, दो दो आयं"।
